दोस्तो, क्या हो अगर हम अंतरिक्ष में किसी ग्रह, उपग्रह से या फिर अंतरिक्ष से वापस आने की बात करें जहां बाहरी सहायता की कोई उम्मीद भी नहीं कर सकता?
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Toggleआज हम इसी टॉपिक पर बात करते हैं कि अंतरिक्ष से पृथ्वी पर वापस कैसे आते है।
दोस्तों हम यह तो जानते कि अंतरिक्ष में कैसे जाते हैं लेकिन आज की विडियो में हमें वहां से वापस आने के बारे में जानेंगे। आइये जानते हैं कि कैसे वापस आते हैं अंतरिक्ष से पृथ्वी पर।
क्योंकि अंतरिक्ष में जाने से लेकर और वापस आने में ही असली खेल दिखाई देता है।
अंतरिक्ष की यात्रा करने के लिए हमें रॉकेट की मदद लेनी पड़ती है क्योंकि उसके बिना कोई भी अंतरिक्ष में नहीं जा सकता है। इसके अलावा स्पेसक्राफ्ट से भी अंतरिक्ष में जाया जा सकता है।
अब इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि ये दोनों एक ही हैं क्योंकि दोनों अलग अलग होते हैं क्योंकि स्पेस में एस्ट्रोनॉट स्पेसक्राफ्ट में बैठकर ट्रैवल करते हैं।
जबकि रॉकेट को आप एक टैक्सी से कंपेयर कर सकते हैं। वहीं स्पेसक्राफ्ट को एक सवारी से। अंतरिक्ष में स्पेसक्राफ्ट का ही मेन काम होता है।
इसी में ही एस्ट्रोनॉट और एक्सपेरिमेंट के लिए जरूरी इक्विपमेंट रखे होते हैं। इसलिए अंतरिक्ष में जाने के लिए रॉकेट और स्पेस क्राफ्ट दोनों ही जरूरी हैं। क्योंकि जिस स्पेसक्राफ्ट से अंतरिक्ष यात्री को पृथ्वी से अंतरिक्ष में भेजा जाता है।
उसी रॉकेट के इंजन से ही जोड़ा जाता है और वहीं से उसे अंतरिक्ष तक पहुंचना होता है। इस पूरे प्रोसेस को बेहतर तरीके से समझने के लिए पहले आपको यह जानना होगा कि रॉकेट काम कैसे करता है।
रॉकेट काम कैसे करता है?
दोस्तो, न्यूटन का थर्ड लॉ ऑफ मोशन कहता है कि हर एक्शन का एक इक्वल अपोजिट रिएक्शन होता है।
जैसे हम जब बॉल को जमीन पर उछालते हैं तो बॉल जिस स्पीड से हमें नीचे मारते हैं, उतनी ही स्पीड से वह वापस ऊपर की ओर उछलती है और एक रॉकेट भी।
थर्ड लॉ मोशन किसी सिद्धांत पर काम करता है। ढेर सारे फ्यूल के कंबो से पैदा हुआ थ्रस्ट का इस्तेमाल करके ही रॉकेट जमीन से उठता है।
यहां आप एक बात समझ लीजिए कि अगर आपको लगता है कि लंबा सा गोलाकार यान और रॉकेट छोटा है तो आपको पता होना चाहिए कि रॉकेट केवल एक तरह के इंजन होते हैं, जिसका काम अंतरिक्ष तक अपने पेलोड को पहुंचाना होता है।
पेलोड में कुछ भी हो सकता है। एक सेटेलाइट साइंटिफिक इक्यूपमेंट, अंतरिक्ष यात्री से लेकर स्पेस प्रोब भी।
हवाई जहाज की तरह ही एक रॉकेट को काम करने के लिए ईंधन की जरूरत होती है। जब ईंधन जलता तो उसमें से गरम गैसेज निकलती हैं।
अपनी बनावट की वजह से वह रॉकेट इंजन इन सभी गैसों को नीचे की तरफ छोड़ने लगता है, जिससे एक क्रस्ट या फिर धक्का पैदा होता है और रॉकेट हवा में उठने लगता है।
रॉकेट और एरोप्लेन के इंजन में क्या फर्क होता है?
दोस्तों, रॉकेट और एरोप्लेन के इंजन में बहुत बड़ा फर्क यह है कि एरोप्लेन को अपने ईंधन को जलाने के लिए हवा में मौजूद ऑक्सीजन की जरूरत होती है।
वहीं रॉकेट धरती के वायुमंडल के साथ साथ अंतरिक्ष और बेहद कम दबाव वाली जगह में भी उड़ सकता है।
क्योंकि इसका इंजन ईंधन को जलाने के लिए जरूरी ऑक्सी डाइजेस्ट अपने साथ लेकर उड़ता है।
इसके इंजन को बाहर से ऑक्सीजन लेने की जरूरत नहीं होती इसलिए यह कभी भी और कहीं भी कितनी भी ऊंचाई तक उड़ सकता है।
एक रॉकेट इंजन में दो तरह के ईंधन का प्रयोग किया जाता है लिक्विड ईंधन या फिर सॉलिड ईंधन।
लेकिन खास तौर पर एक स्पेस शटल में लिक्विड फ्यूल का ही प्रयोग किया जाता है।
मेन रॉकेट इंजन के अलावा इसमें बूस्टर रॉकेट भी लगे होते हैं, जो इसे पृथ्वी की कक्षा से बाहर निकालने में जरूरी और एक्स्ट्रा पुश देते हैं।
क्योंकि बूस्टर रॉकेट का इस्तेमाल पृथ्वी की कक्षा के अंदर ही होता है। इसमें सॉलिड प्रोपेलेंट का ही प्रयोग किया जाता है।
फ्यूल खत्म होने के बाद यह मेन रॉकेट इंजन से अपने आप अलग हो जाते हैं और बाकी का रॉकेट अपने आगे की ओर निकल जाता है।
अब आपको यह तो पता चल ही गया होगा कि रॉकेट क्या होता है, कैसे काम करता है।
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स्पेसक्राफ्ट काम कैसे करता है?
अब बढ़ते हैं स्पेसक्राफ्ट की तरफ जो कि एक हवाई जहाज की तरह होता है, जिसके अंदर अंतरिक्ष यात्रियों के रहने, खाने पीने और सोने जैसी तमाम जरूरतों के हिसाब से सारी फैसिलिटीज मौजूद होती हैं।
स्पेसक्राफ्ट का आगे के हिस्से में उसका पूरा कंट्रोलिंग सिस्टम होता है, जहां से अंतरिक्ष यात्री उसे कंट्रोल कर सकते हैं।
जैसे ही एक स्पेसक्राफ्ट। अंतरिक्ष में पहुँचता है तब उसका मेन रॉकेट इंजन भी उससे अलग हो जाता है।
और यहीं से शुरू होता है स्पेसक्राफ्ट का सफर, जिसकी कमान अंतरिक्ष यात्री के हाथ में होती है। ग्राउंड पर बैठी टीम कंट्रोल कर रही होती है।
अंतरिक्ष यात्री इस स्पेसक्राफ्ट को ठीक उसी तरह से चला सकते हैं जैसे कोई पायलेट एरोप्लेन को उड़ाता है।
इसके अंदर एडवांस टेक्नॉलजी वाले सेंसर और मशीनें भी लगी होती हैं, जिनकी बदौलत ही अंतरिक्ष यात्री स्पेस में रिसर्च और एक्सपेरिमेंट परफॉर्म कर पाते हैं।
स्पेस ट्रैवल के लिए एक स्पेस क्राफ्ट को रॉकेट का होना जरूरी है। इनके बिना ये मुमकिन नहीं।
लेकिन रॉकेट को लॉन्च करने के लिए जिस तीसरे मेगा इक्विपमेंट की जरूरत पड़ती है, वह लॉन्च पैड का प्लैटफॉर्म होता है, जिसकी मदद से रॉकेट को आकाश की तरफ एक सीधी रेखा में प्रोजेक्ट किया जाता है।
लॉन्च का ये प्रॉसेस रॉकेट के पेलोड पर डिपेंड करता है। पेलोड जितना ज्यादा होगा, लॉन्चिंग की स्टेज भी उसी के हिसाब से प्लान की जाती है।
लॉन्च होने के कुछ मिनट बाद ही शटल पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश कर जाता है, जिसके बाद रॉकेट पृथ्वी में वापस आ गिरते हैं।
दोस्तो आपको ये पता होना चाहिए एस्ट्रोनॉट पृथ्वी की कक्षा से ज्यादा दूर नहीं जा पाते।
कई वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे पास उस क्वालिटी की टेक्नॉलजी नहीं है कि हम खुद जाकर डीप स्पेस में एक्सप्लोरेशन कर पाएं।
इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन एस्ट्रोनॉट के लिए एक होटल की तरह होता है, जिसके अंदर कई मॉडर्न इक्विपमेंट्स और फैसिलिटीज मौजूद होती हैं।
अंतरिक्ष में जाने वाले ज्यादातर एस्ट्रोनॉट अपने रिसर्च और एक्सपेरिमेंट को आईएसएस या फिर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन से ही परफॉर्म करते हैं।
एस्ट्रोनॉट अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर कैसे आते है?
अभी हम बात करेंगे कि सभी एक्सपेरिमेंट करने और कई दिन स्पेस में बिताने के बाद एस्ट्रोनॉट अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर कैसे आते है।
अगर आपको लग रहा है कि जिस तरह से स्पेस में गए थे उसी तरह रॉकेट के जरिए वे वापस भी आ जाएंगे। जबकि अंतरिक्ष में पहुंचने के बाद रॉकेट उससे अलग हो जाता है।
अब उसका जवाब है स्पेसक्राफ्ट जो कि 17 हज़ार 500 मील प्रति घंटा की रफ्तार से पृथ्वी की तरफ ट्रैवल कर रहे होते हैं।
स्पेसक्राफ्ट पृथ्वी की कक्षा पर चारों ओर चक्कर लगाते हुए धीरे धीरे पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करता है।
पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करते हुए स्पेसक्राफ्ट को तेज और गर्म हवाओं का सामना करना पड़ता है और ये हवाएं इतनी खतरनाक होती हैं कि तेज घर्षण के कारण स्पेसक्राफ्ट जलकर राख भी हो सकते हैं।
इस कंडीशन से बचने के लिए स्पेसक्राफ्ट की ऊपरी सतह पर एक खास तरह की हीट रेजिस्टेंट चादर लगाई जाती है।
अगर किसी वजह से ये चादर न हो या टूट जाए तो फिर स्पेसक्राफ्ट का पृथ्वी पर वापस आना मुश्किल हो जाता है।
इसके बाद जैसे जैसे स्पेसक्राफ्ट पृथ्वी की सतह के नजदीक आता जाता है, वह जमीन के पैरलल उड़ने लगता है और फिर आता है लैंडिंग का टाइम।
स्पेसक्राफ्ट को लैंडिंग का प्रोसेस किसी एरोप्लेन की लैंडिंग के प्रोसेस की तरह होता है, लेकिन फर्क यह होता है कि स्पेसक्राफ्ट की स्पीड बहुत ज्यादा होती है।
इसलिए लैंडिंग के समय इसमें पीछे की तरफ एक पैराशूट खुलता है। इसी तरह पृथ्वी पर अंतरिक्ष यात्री सही सलामत वापिस आते हैं।
स्पेसक्राफ्ट की लैंडिंग भी एयरपोर्ट रनवे पर ही कराई जाती है और इस दौरान एरोप्लेन की तरह ही स्पेसक्राफ्ट के पहिये भी खुल जाते हैं।
हालांकि मर्करी, जेमिनी, अपोलो और सियोन जैसे कुछ स्पेसक्राफ्ट की लैंडिंग समुद्र में करवाई गई थी लेकिन ये प्रोसेस अब कम ही इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि इसमें स्पेसक्राफ्ट के डूबने का खतरा बना रहता है जो कि अंतरिक्ष यात्री के लिए घातक साबित हो सकता है।
दोस्तों आपने कभी ध्यान दिया कि स्पेस से आने वाली हर तस्वीर में अंतरिक्ष यात्री सफेद रंग के स्पेस सूट में ही क्यों दिखाई देते हैं।
लेकिन जब एस्ट्रोनॉट स्पेस के लिए रवाना होते हैं या फिर वापस आते हैं तब उन्होंने ऑरेंज कलर का स्पेस सूट पहना होता है जिसे एडवांस क्रू एस्केप कहते हैं।
जबकि सफेद सूट को एक्स्ट्रा मैकुलर एक्टिविटी कहते हैं। इसके पीछे भी एक खास कारण है। दरअसल, स्पेस सूट अंतरिक्ष यात्री को ध्यान में रखते हुए डिजाइन की जाते हैं।
स्पेस सूट के ऑरेंज रंग का यह भी कारण है कि इसका रंग दूसरे रंगों से ज्यादा विजिबल होता है।
इसे स्पेस में जाते समय और आते समय पहना जाता है ताकि जाने या आने में कोई दुर्घटना भी हो जाती है तो अंतरिक्ष यात्री को उसके सूट के रंग की मदद से आसानी से खोजा जा सके।
वह सूट में लाइट और पैराशूट जैसी कई चीजें जुड़ी होती हैं, जिससे किसी दुर्घटना होने की स्थिति में एक अंतरिक्ष यात्री की जान बच सके।
अगर बात करें सफेद स्पेस सूट की तो इस स्पेस में अंतरिक्ष यात्री इसलिए पहनते हैं ताकि वो अंतरिक्ष के घने अंधेरे में दूर से ही दिख जाएं। सफेद सूट काफी एडवांस टेक्नॉलजी से बनाया जाता है।
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